हैं विकल मन की उमंगे - अनुराधा पाण्डेय

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भूलकर सौगंध सारे,राग प्रत्याहार।

लौट आओ प्राण विहगे !लौट आओ प्राण!!

मानता हूँ दंश तुमको,दे गया था मैं अजाने ।

किन्तु तुम से दूर रह लूँ,एक क्षण भी मन न माने ।

रह गया प्रिय ! है बिखरकर,प्रीत का संसार ।

लौट आओ प्राण विहगे ! लौट आओ प्राण !

मूल्य क्या है री ! अहं का,प्रीत में अनुबंध क्या है ?

कूल इस नद पर न बाँधो,नेह में तटबंध क्या है ?

रो रहा है भग्न मन का ,देख लो ! श्रृंगार।

लौट आओ प्राण विहगे! लौट आओ प्राण !

क्या करूँ जड़ देह लेकर ,साँस ही जब कट गई है ?

प्रीत प्राणित भू हृदय की ,वेदना से पट गई है

नित प्रलय तुम बिन गुजरता,हाय  प्रणयाधार !

लौट आओ प्राण विहगे! लौट आओ प्राण !

- अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका,दिल्ली