मेरी कलम से - अनुराधा पाण्डेय

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लाक्षारस के समान, तरुणी के गात देख ,

एक सांस में ही अलि ,चाहे मद्यपान हो।

दाड़िम सी दन्तपङ्क्ति, हीरक समान कान्ति,

यौवन उद्दाम देख,भाव रतिमान हो।

खंजन चकोर नैन,कम्बु ग्रीव पिकबैन,

कोमल कपोल कण्ठ,कोकिल समान हो।

तरुणी की तरुणाई, यौवन की अँगड़ाई,

निरखि के काम मन,क्यों न मूर्त मान हो?

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पृथक जब नहीं, पास क्या दूर क्या है?

चतुर्दिक वही आस-विश्वास में है।

सदा स्त्रवित है रुधिर धमनियों में,

हृदय है तो वह, देह वनवास में है।

सतत धड़कनों में धड़कता वही है,

मलयवाह सुरभित,उसी की छुवन से....

भले वो न मेरे बसे जड़ निलय में,

हृदय के बसा,किन्तु रनिवास में है।

- अनुराधा पाण्डेय , द्वारिका, दिल्ली