गंध तुम्हारी फिर ले आई - अनुराधा पाण्डेय

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गंध तुम्हारी फिर ले आई, सुबह-सुबह पुरवाई ।

चंदन-जैसी महक रही है, मन की फिर अंगनाई ।

यों तो मैं प्रिय ! बाद तुम्हारे, ठहरी निपट अकेले ।

किन्तु चतुर्दिक रहे निरंतर, सुधियों के ही मेले

लिपटी तन से रही तुम्हारी, हरदम ही परछाई ।

चंदन-जैसी महक रही है--

मूर्त हुई-सी रहती अपनी, मधुर मिलन की रातें ।

भिगा दिया करती दोनों को, सावन की बरसातें ।

सौ-सौ बार जिया करती हूँ, मैं अपनी तरुणाई ।

चंदन-जैसी महक रही है--

गंध तुम्हारी फिर ले आई,सुबह-सुबह पुरवाई

चंदन-जैसी महक रही है,मन की फिर अंगनाई ।

 - अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका , दिल्ली