अमलतास - सविता सिंह

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चिटक पड़े सिंदूरी पलाश,

उभरी यादें अनायास।

चटके  फिर  से, वो  ही पलाश,

काश,काश! की कहीं थी आस।

आगे ज्यौं ये,  बढ़  चले  कदम, 

थम गये  नयन,देख अमलतास।

सहसा ठिठके,  मेरे   ये   पाँव,  

आन  पड़े  पग, अब  दूजी ठाँव,

बिसार  पलाश 'औ' अमलतास

कदम  धरे अब ,तो उनके गांव। 

सुधि में रहेगा हर क्षण सिंचित,

पलाश अरु अमलतास की छाँव।

 - सविता सिंह मीरा, जमशेदपुर , झारखण्ड