घायल मन - राधा शैलेन्द्र

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मेरा घायल मन मुझसे ही,

अनगिनत सवाल करता है,

मेरा मन क्यों मुझसे,

अनसुलझे से सवाल करता है?

मेरा मन पूछता हैं,

हमें हर जज्बे को छूकर,

महसूस करने की आदत क्यों है,

इस जमाने में रवायतों को,

तोड़ना जुर्म क्यों है?

मेरा मन कहता है,

तसल्ली के इंतिहाई सिरे पर भी,

आज 'तीरगी' है,

एहसास का सफर,

आज इतना टेढ़ा क्यों है?

मेरा मन फिर पूछता है,

जब किस्मत की बात आती है,

किस्मत क्यों इतना खेल खेलती है!

हर खुशी का ताल्लुक,

दौलत से नही होता,

फिर उसे मापने का,

पैमाना दौलत ही क्यों है?

मेरा मन ये भी कहता हैं,

किस्मत तो अक्सर,

आईना दिखाया करती है,

फिर आज का इंसान,

आईना को देख ख़ौफ़ज़दा क्यों है?

दीपक के तले ही तीरगी क्यों है?

-राधा शैलेन्द्र, भागलपुर