तकलीफ - प्रदीप सहारे

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सुबह सुबह,

जिगरी दोस्त,

हमारा रामभाया  ।

भनभनाते घर आया ।

मुझे कुछ माजरा,

समझ नही आया ।

मैंने उसे,

सोफे पर बिठाया ।

चाय पिलाकर ।

कारण पूछा,

तो तुनककर बोला,

" क्या बात करें..

जीये या मरे...

सब रास्ते हैं,

तकलीफ से भरें ।

सब तरफ हैं,

तकलीफ के नखरे ।

घर में बैठो तो,

घर वालो के नखरे ।

आँफिस जाओ तो,

बाँस के नखरे  ।

देश में घुमों तो,

नखरे ही नखरे ।

कही बाबू के नखरे,

कही नेता के नखरे।

समर्थन करें तो,

अंधभक्त ठहरे  ।

विरोध करें तो,

चमचे ठहरे ।

हिंदू हिंदुत्व का,

चल रहा जागरण  ।

भारत को जोड़ने,

निकले नेतागण  ।

महंगाई से,

जनता हैं परेशान।

उसकी तकलीफ का,

नही हैं किसे ध्यान ।

इतना कहकर,

हो गया वह मौन ।"

फिर मैंने,

अपना मौन तोड़ा।

उसकी तकलीफ से,

अपनी तकलीफ को जोड़ा ।

फिर जोडा,कुछ घटाया ।

तो एक बात समझ आयी ।

आज  ,

तकलीफ  को भी...

तकलीफ हुयी  ।

️प्रदीप सहारे, नागपुर, महाराष्ट्