गीत - जसवीर सिंह हलधर

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ढोल बजाते नैतिकता का , नैतिक नहीं हुए वो सच में ।

सिंधु सरीखा रूप दिखाते , सागर नहीं कुए वो सच में ।।

शब्दों की नक्कासी करते ,मौलिकता से दूर छंद हैं ।

संतों जैसी वाणी उनकी , कुंठा से भरपूर छंद हैं ।

राख बटोरी है जीवन भर , शोले नहीं छुए वो सच में ।।

ढोल बजाते नैतिकता का , नैतिक नहीं हुए वो सच में ।।1

एक उदाहरण हमको भी दो, किसका भला किया है अब तक ।

भूख गरीबी के मारे को , कितना दान दिया है अब तक ।

एक बूंद प्यासे पक्षी को ,जल की नहीं चुए वो सच में ।।

नैतिकता का ढोल बजाते नैतिक नहीं हुए वो सच में ।।2

बात बनाने में क्या जाता , बैठे बैठे गाल बजाओ ।

भारत माता के आंगन में ,रोज गंदगी को फैलाओ ।

बातें करते हथियारों की , भाला नहीं सुए  वो सच में ।।

नैतिकता का ढोल बजाते , नैतिक नहीं हुए वो सच में ।।3

एक पक्ष की कविता लिखते ,कुंठित मनोभाव के रागी ।

कविता सिद्ध उसी की होती , लिखने वाला यदि बैरागी ।

"हलधर" सींचे माप दंड पर , नायक नहीं मुए वो सच में ।।

नैतिकता ढोल बजाते ,नैतिक नहीं हुए वो सच में ।।4

- जसवीर सिंह हलधर , देहरादून