चीख - प्रदीप सहारे

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प्रेम, सहमति, समर्पण,

आलिंगन, रेतस (स्पर्म)।

इन पंचम क्रियाओं से,

निर्मित मैं एक जान ।

बढ़ रही कोख में ।

माँ के रक्त से मिलती ऊर्जा ।

दौड़ती भागती, इधर उधर ।

मंद मंद मुस्कराती,

सोने पर देखती सपने  ।

सोचती, बाहर आकर,

ना जाने कितने होगे अपने ।

एक दिन बैठी थी छुपकर ।

ना जाने कैसे पडी ,

कैमरे की नज़र ।

मैं मुस्कराई ।

शायद मेरी मुस्कराहट,

पसंद ना आई ।

बढने लगा घर में शोर ।

कसमें, वादों की देकर दुहाई।

माँ बहुत समझायी।

फिर भी ना थमा शोर ।

माँ हो गई कमजोर ।

कमजोरी फायदा लेकर,

आये अस्पताल ।

माँ की धीमी थी चाल,

बिखरे हुए थे बाल ।

मैं भी कुछ,

अनजाने ड़र से ड़री  ।

माँ बैड पर पडी,

फिर एक बार लडी ।

सब कुछ हुआ व्यर्थ ।

जीत गया स्वार्थ ।

बढने लगे मेरी ओर,

एक-एक कर ,

चिमटा, चाकू, छुरी  ।

झलक रहीं थी,

माँ और मेरी मजबूरी ।

माँ रो रही थी,

मैं भाग रही थी ।

कोशिश कर रही थी,

एक बार छुपने की ।

क्योंकि..

अब यह जगह ,

नहीं थी अपनों की ।

भागकर थकी तो,

पैर पकड़ा चिमटे ने,

काट दिया कैंची ने  ।

मैं चिखी चिल्लाई ।

ड़रा रही थी,

नन्हे हाथों से ।

धारदार औजारों को ।

नहीं फर्क पड़ रहा था,

उन जंगली इनसानों को।

मेरे एक-एक अंग,

काट रहें थे बेदर्दी से ।

हो रहें थे परिवर्तित,

एक-एक मास के गोले में ।

रक्त बह रहा था,

मेरा और माँ का ।

एक अंतिम कोशिश,

बचने की,

सीर को जगह थी,

छूपने की ।

क्योंकि...

वह नही रहा मान ।

इतना भी,

बेदर्दी नहीं हैं इंसान  ।

फिर बेदर्दी से हथौड़ा ,

सिर पर  पड़ा ।

भागते हुए सिर को फोडा ।

छा गया अंधेरा,

कुछ न रहा था दिख ।

बस निकली ,

एक अंतिम चीख ।

एक अंतिम चीख ।

मांगता हूं,

कविता के माध्यम से भीख ।

अंत ना करों बेदर्दी से।

आने दो इस जग में।

छाने दो इस जग में ।

प्रदीप सहारे, नागपुर , महाराष्ट्र