पूर्णिका साहित्य जगत में पूर्णिमा की चांदनी सी छटा बिखेर रही है: डॉ सलपनाथ यादव ​​​​​​​

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Vivratidarpan.com- ने साहित्य में नव विधा का सृजन किया है जिसकी धारा सतत प्रवाहित होते हुए कवियों की लेखनी में समाहित हो पूर्णिका बन गई है और जिसकी गूंज सर्वत्र फैल रही है.....जिसे कलमकारों ने इस प्रकार कहा डॉ सलपनाथ यादव प्रेम का पूर्णिका के प्रति समर्पण भाव प्रतीक है इस बात का की पूरे देश के कलमकार एक से बढ़कर एक पूर्णिका का सृजन कर रहे हैं मुझ जैसे न जाने कितने काव्य रसिकों को रसपान करा रहे है....पूर्णिका साहित्य की वह विधा है जिसके अंग गजल से  बहुत कुछ मिलते है किंतु गजल में जहां नायक नायिका के प्रेम संवाद का वर्णन होता है वही पूर्णिका का वर्ण्य विषय वृहद विस्तृत रूप में होता है।

यदि यू कहू तो की गजल और पूर्णिका में भेद भी यही है कि गजल नायक नायिका के प्रेमालाप का वर्णन है जबकि पूर्णिका जीवन,समाज व देश के प्रत्येक विषय व समस्या को अपने अंदर समाहित करती है.......

आदरणीय भाई सलपनाथ जी का तर्क भी यही हैं कि जब कोई विधा सम्पूर्ण विषयो का वर्णन करे तो हम उसे क्यो न पूर्णिका कहे l आपके इस तर्क का सत्यापन गजल के जन्मदाता के इस कथन से हो जाता हैं कि गजल प्रेमी प्रेमिका के कथोपकथन गायन है.....ये बातें टी के सिंह परिहार ने अभिव्यक्त की। सलपनाथ यादव जो कि एडवोकेट और महान विचारक तथा स्वतंत्र लेखक कवि है जो अपना उत्तम विचार देकर कवियों गजलकारों को अनुग्रहित करते हैं  आपने अपने कठिन परिश्रम और चिंतन से जो गज़ल के बिगड़े हुए स्वरुप पूर्णिका नाम दिया और उर्दू वालों के लिए कामिल नाम दिया है वह सर्वथा ग्राह्य है आपके इस प्रयत्न से स्वयं को गज़लकार कहकर ग़ज़ल की रीति बिगाड़ने वालों तथा अन्य उभरते अंकुरो के लिए एक सुन्दर शिक्षा है जिसे उन्हें अपनाना चाहिए और इसका प्रयोग करना चाहिए श्रृंगार से भिन्न ग़ज़ल में यदि कोई भी रस प्रयुक्त हो तो उसे पूर्णिका या कामिल कहना ही उचित है। ग़ज़ल एक ऐसा नाम जिसका अर्थ प्रेमी और प्रेमिका के प्रेम को दर्शाता है यह एक ऐसी  विधा है जिसमें प्रेमी और प्रेमिका के प्रेम का सुन्दर ढंग से वर्णन किया जाता है किन्तु आज इसे हास्यादि रस में प्रयोग किया जा रहा जिसे उचित कहना भी अनुचित है जिसे ग़ज़ल कहकर लोग हर रस में प्रयोग करते हुए ग़ज़ल कह रहें हैं उसे पूर्णिका या कामिल कहना ही उचित है जिसे सलपनाथ एक सुन्दर और उचित नाम दिए है हर रस में इसका प्रयोग करने वालों को सदैव ग़ज़ल न कहकर पूर्णिका या कामिल कहना ही उचित है क्योंकि अब ग़ज़ल ग़ज़ल नहीं रह गयी है ग़ज़ल वर्णित कहानी मात्र प्रेमी और प्रेमिका पर ही शोभित होती है इसलिए मेरा मानना है जो आदरणीय सलपनाथ जी ने नया नाम पूर्णिका या कामिल दिया है वह सर्वथा उचित ही है जिसका जो नियम है उसका उसी नियम में प्रयोग करना चाहिए जिसका उनुलंघन खुद को गजलकार कहने वाले ही कर रहें हैं ग़ज़ल मात्र श्रृंगार रस से ही शोभित होती है इससे अलग रस यदि गजलकार प्रयोग कर रहें हैं तो उसे सलपनाथ जी के द्वारा दिए गये पूर्णिका या कामिल नाम से सम्बोधित करना उचित है। आदरणीय सलपनाथ के इस प्रयास के लिए मैं उन्हें साधुवाद देता हूं। वो ग़ज़ल का स्वरुप समझाते हुए जो अपनी पुस्तक के द्वारा नयी चेतना और ज्ञान प्रदान कर रहें उससे गजलकारों का अत्यंत भला होगा और ग़ज़ल ग़ज़ल का स्वरुप पकड़ेगी। मैं आचार्य आशीष पांडेय 'पराशर' बधाई देता हूं।

पूर्णिका की आंधी.....डॉ सलपनाथ यादव के प्रयासों से साहित्य में पूर्णिका की आंधी चल पड़ी है.....सरल भाव से सरल शब्दों के संयोजन से पूर्णिका जन-जन को भाने लगी है। पूर्णिका के जनक सलपनाथ  की मेहनत धीरे-धीरे अनूठा  रंग लाने लगी है। भारतीय साहित्य में स्थान बनाने लगी है.....विनोद कुमार सीताराम दुबे शिक्षक भांडुप मुंबई महाराष्ट्र।

पूर्ण सत्य है डॉ सलपनाथ यादव प्रेम पूर्णिका शब्द को यथोचित स्थान दिलाने के लिए कठिन तप कर रहे है जो अत्यंत प्रशंसनीय .....मदन श्रीवास्तव,

आगत संस्कारधानी का स्वागत पूर्णिका के साथ करे, तो यह बड़े ही गौरव की बात होगी .....एम पी कोरी,

ग़ज़ल मूलतः इश्क ए हबीबी और मोहब्बत की बातों का ही ख्याल तसव्वुर है। लेकिन आज के परिप्रेक्ष्य में सभी विषयों में कलमकार अपनी बात कह रहे हैं तो हमारे जबलपुर की शान कवि सलपनाथ प्रेम ने साहित्य की इस *सद्य विधा को *पूर्णिका नाम दिया है जो यथोचित ही जान पड़ता है मैं तो इसके व्यापक वैश्विक स्तर पर अंगीकार करने की बात मानता हूं।

पूर्णिका साहित्य  मतलब हिंदी भाषा में देवनागरी लिपि का समग्र साहित्य समाहित है। ऐसे समझे- आप  दोहा छंद मुक्तक ग़ज़ल (कामिल)  लिखते हैं तो यह पूर्णिका (समग्र देवनागरी लिपि साहित्य) की इस विधा के अंतर्गत ही  आयेगा। साथ ही हम संस्कार धानी के लिए अति गौरव और हर्ष का विषय भी। जब भी पूर्णिका  का नाम लिया लिखा जायेगा तो जबलपुर और सलपनाथ प्रेम हम सबके लिए अत्याधिक हर्ष और खुशी का सच्चा  गौरव इतिहास ही कहलायेगा .....अंशुल मिश्र कदम जबलपुरी,

साहित्य जगत में एक नया अध्याय साहित्यकारों के अध्ययन एवं शोध का नया विषय पूर्णिका निश्चित रूप से समाज के सभी वर्गों के जीवन का दर्पण साबित होगा । डॉ सलपनाथ यादव को इस उपलब्धि के लिए बधाई  देता हूँ .....एड. एन डी निम्बावत "सागर" जोधपुर

सलपनाथ यादव गजल के मुकाबले पूर्णिका रूपी नया छंद विधान स्थापित किया, साहित्य अकादमी मध्य प्रदेश ने लगाई मुहर सुरेंद्र दुबे, जबलपुर। संस्कारधानी जबलपुर के सृजनधर्मी अधिवक्ता डा. सलपनाथ यादव प्रेम ने उर्दू की विधा गजल के मुकाबले हिंदी में पूर्णिका रूपी नया छंद विधान स्थापित किया है। साहित्य अकादमी मध्य प्रदेश के निदेशक डा.विकास दवे ने इस पर मुहर लगा दी है। हालांकि इससे पूर्व ही देश के अनेक वरेण्य रचनाकार इस तपोसिद्ध कार्य को मान्यता दे चुके थे।

सलपनाथ शब्दों को अपने रचना संसार के अनुकूल ढ़ाल लेते हैं। उन्होंने उर्दू विधा गजल को हिंदी में पूर्णिका नाम दिया है। लिहाजा, अब मैं भी गजलों को पूर्णिका ही कहूंगा। इन पूर्णिकाओं में मोहब्बत की चाशनी, मिट्टी की महक, एहसास की चांदनी, रिश्तों के बिखरने का एहसास, श्रम के सूरज की गर्मी, संस्कृति का संरक्षण, राजनीति की गिरावट, खूनी रिश्तों की सजावट, ममता की लोरी, बच्चों का स्नेह, गांव का परिवेश, आधुनिक भारत की तस्वीर, वह सब कुछ देखने को मिलता है, जो हम सब देखते और सोचते हैं.....इनफान झांस्वी, वरिष्ठ शायर

अब मैं भी गजल के लिए सुझाए गए शब्द पूर्णिका का उपयाेग करने लगा हूं। साथ ही देश-दुनिया के अन्य कवियों-शायरों से भी ऐसा ही अनुरोध करता हूं। मैं ऐसा क्यों कहता हूं, इसका अंदाजा इस पूर्णिका को पढ़कर खुद ही लगा लीजिए-‘क्यों रे दुखिया तूने क्या पाई नहीं तमीज। मालिक के घर आ गया पहने नई कमीज...डा. चंद्रभान चंद्र

रजनी कटारे के शब्दों में साहित्यिक विधा के क्षेत्र में कुछ नया सा शब्द प्रतीत होता है "पूर्णिका"

पर ऐसा नहीं है पूर्ण और पूर्णता को तो हम सभी समझते हैं, किन्तु काव्य के क्षेत्र में पूर्णिका नाम आया ! तो लगा कि ये कौन सी विद्या है...? देखने से प्रतीत होता है ये तो गज़ल है,फिर पूर्णिका नाम क्यों...? समय के अनुसार हर दौर में बदलाव सम्भव है,फिर गज़ल का क्यों नहीं ! गज़ल का ही तो हिन्दी प्रतिरुप है "पूर्णिका" हर विद्या को कोई न कोई तो ईज़ाद करता है...बदलाव तो दुनिया का दस्तूर है .....हर एक का होता, अपना दायरा है,वक्त है बदलता, बदलता दायरा है। लाज़मी होता, समयानुसार ढलना, हर दौर बदलता, मुकम्मल दायरा है।

डाॅ. सलपनाथ यादव जी जाने माने लेखक, साहित्यकार और कवि हैं, आपका कहना है-मैंने गज़ल को पूर्णिका नाम क्यों दिया- पहले गज़ल स्त्री- पुरुष की भाव भंगिमाएं, प्रेमी प्रेमिका के रुप श्रृंगार, आदि पर कही जाती थी...किन्तु आज के इस दौर में गज़ल का भी विस्तृत दायरा हुआ है, गज़ल के वर्तमान हिन्दी स्वरूप को पूर्णिका कहना न्यायोचित है, पहले गज़ल की विषय वस्तु का आधार "प्रेम" ही था, अर्थात प्रेम के विविध स्वरुपों को दर्शाया जाता था.....सलपनाथ का- हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में यह एक सराहनीय कदम है, गज़ल का जो रुप शुरु से चला आ रहा है उसका विस्तृत रुप देख वर्तमान

हिन्दी स्वरूप को "पूर्णिका" नाम दिया गया है.....साहित्य जगत में आप "पूर्णिका के जनक" कहे जाएंगे.....गज़ल का हर शेर अपने आप में पूर्णता लिए हुए होता है, उसी आधार पर हम गज़ल के वर्तमान हिन्दी स्वरूप को पूर्णिका क्यों न कहें! साहित्य अकादमी के निदेशक जी ने भी रचनाकारों से निवेदन करा है।भविष्य में इस विद्या को पूर्णिका नाम से ही सम्बोधित करा जाए.....कविता में कितने रुप समाहित छंदबद्ध, दोहा, चौपाई, कुंडलियां, छप्पय, घनाक्षरी, लोकगीत, गीत इत्यादि कितनी श्रृंगारित हुई.....

कहते हैं गज़ल को उर्दू की जान माना जाता है...गज़ल की अपनी अलग ही गायकी है....हिन्दी गायकी की अपनी अलग परम्परा है.....यह भी सत्य है गज़ल और उर्दू का चोली दामन का साथ है, गज़ल के फ़नकार कहे जाने वाले- गालिब और खुसरो को हिन्दी और उर्दू से ही लोकप्रियता हासिल हुई......एक समय ऐसा आया जब गालिब ने फारसी की तरफ़ रुख कर लिया, किन्तु उन्हें समझते देर न लगी- उर्दू से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता.....आखिर उन्हें सम्मान भी हिन्दी और उर्दू ने दिलाया..गज़ल का रुप काफी प्राचीन कविता का ही रुप है.....डाॅ. सलपनाथ यादव ने वर्तमान समय में गज़ल के परिष्कृत स्वरूप को "पूर्णिका" नाम देकर  हिन्दी साहित्य को गौरवान्वित किया है.....

हिन्दी का मान बढ़ा कर हमारे देश का मान बढ़ाया है, नि:संदेह गज़ल के वर्तमान हिन्दी स्वरूप को हम "पूर्णिका" नाम से सम्बोधित करें.....

देश विदेश से अनेकों कलमकारों ने पूर्णिका की धारा में लेखनी चलाकर साहित्य को समृद्ध कर रहे है।