कविता - (पनघट बनाम मरघट) - जसवीर सिंह हलधर

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प्यास जहां प्राणों की बुझती कहलाता पनघट है

प्राण जिसे देकर पाते हम  कहलाता मरघट है ।।

एक घाट प्यासे राही जल पीते और नहाते 

वहीं दूसरी ओर आग में लाश जली हम पाते 

किसके पास बही खाता सांसों का लेखा जोखा

एक  तरफ जन्मोत्सव है तो दूजे मौत झरोखा

जीवन रूपी जल धारा बहती रहती सरपट है ।।

प्यास जहां प्राणों की बुझती कहलाता पनघट है ।।

इधर घाट पर रूप दिखाते नहीं  रुकी है माया

उधर चिता में जलते जलते  नहीं थकी है काया

जन्म मरण के धागों का ये कैसा जाल बना है

एक तरफ माया के करतब दूजे काल तना है

दोनों अपना काम करें क्या सुनी कभी खटपट है ।।

प्यास जहां प्राणों की बुझती कहलाता पनघट है ।।

एक तरफ कोलाहल देखो लगा हुआ है मेला

और दूसरी ओर मौन है परम शांति की बेला

एक तरफ धरती के किस्से खाना और खजाना

दूजे जन्नत  का  बहकावा  काल रूप तहखाना

एक तरफ जगती का मेला दूजे शव जमघट है ।।

प्यास जहां प्राणों की बुझती कहलाता पनघट है ।।

अंतस का सौंदर्य काव्य है केवल यही अमर है

धरती घट का घाट मान जीवन ये एक सफर है

कितने महल बने दुनिया में क्या कोई रह पाया

जीवन भर की जोड़ तोड़ से  लक्ष्य नहीं ढह पाया

शब्द साधना सच्ची "हलधर "बाकी सब तलझट है।।

प्यास जहां प्राणों की बुझती कहलाता पनघट है ।।

 - जसवीर सिंह हलधर , देहरादून