सुनो मन - मीरा पाण्डेय

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मैं तुमसे प्रेम नहीं कर सकती,

पर अंत तक तुम्हे ही प्रेम करुँगी,

मैं साथ तुम्हारे नहीं चल सकती.

पर अंत तक तुम्हारे संग चलूंगी,

मैं कोई बंधन नहीं बाँध सकती.

पर अंत तक मन बंधन तुम्हारे साथ रखूगी,

मैं दिल की कोई बात नहीं सुनुँगी.

पर अंत तक दिल के संग तुम्हारे चलूंगी ,

सुनो मन मैं प्रेम नहीं जानती.

पर अंत तक आराध्य तुम रहोगे,

मैं विश्वास नहीं जानती.

पर अंत तक तुम संग विस्वास रखूगी.

मैं कोई रिश्ता नहीं जानती तुम संग.

पर अंत तक तुम संग रिश्ते में रहूंगी ,.

प्रेम क्या पता नहीं. पर जो हैं सुखद हैं

अगर सत्य हो प्रेम में तो मन से मन की

इसकी उपज हैं.

प्रेम में त्याग नहीं जरुरी.

ना जरुरी मिलन हैं.

ना प्रेम सफर बिस्तर पे हैं.

ना प्रेम अंकित अधर चुम्वन में हैं.

प्रेम दिल से दिल तक का सफर हैं.

जिसको दो दिल में तय करना हैं.

कोई जरुरी नहीं.

हमारा मिलना.

कोई बंधन होना.

कोई रिश्तों का नाम होना.

बस तुम मेरे मैं तुम्हारी.

काफी हैं मिल के प्रेम संजोना.

मन से कहो तुम मन की सुनो तुम.

मनमीत कोई मन का चुनो तुम.

- मीरा पाण्डेय, दिल्ली