कविता -- जसवीर सिंह हलधर ​​​​​​​

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अपने सिर पर अब पाप नहीं ढोऊंगा ।

अरि के शोणित से ही कलंक धोऊंगा ।।

सस्ती सुकीर्ति पाकर जो फूल रहा है ।

पैंसठ , सत्तर की  चोटें  भूल  रहा  है ।।

वो आतंकी  मुझको क्या समझे बैठे ।

नापाक पड़ौसी के दम पर  जो  ऐंठे ।।

शोणित मेरा ना शीतल पेय तरल है ।

छूकर तो देखो बहती हुई अनल है ।।

ठंडा करना है क्रोध  प्रबुद्ध  प्रजा  का ।

मुल्लों को सिखलाऊंगा धर्म ध्वजा का ।।

खोई  निष्ठा  अब  दुनियां  में  पाने को ।

जन गण मन दौड़ रहा आगे आने को ।।

आतंको के  विष दंत बड़े घातक हैं ।

घर में भी तो गद्दार खड़े पातक हैं ।।

कुछ ढोंगी  मजहब की आयत पढ़ते हैं ।

कुछ रोज धर्म  के  नए  नियम गढ़ते हैं ।।

जिसको माँ बेटी नहीं हूर हैं प्यारी  ।

वो आतंकी दानव हैं  अत्याचारी ।।

कुछ  नेता  इनके  पैरोकार  बने  हैं ।

जिनके पद कीचड़ में कर खून सने है ।।

जो आतंकी को मित्र कहा करते हैं ।

वाणी से विष के वाण बहा करते हैं ।।

विघटन की बातें करती चंडालिन को ।

रोकूंगा मैं उस दंभी बंगालिन को ।।

फारुक आतुर है जिसके घर जाने को ।

वो खुद भूखा है अन्न नहीं खाने  को ।।

यदि  कोई  मेरा  चलता  रथ  रोकेगा ।

तो भारत उसको घर में घुस ठोकेगा ।।

हलधर"कविता अंगारा है सच मानो  ।

घर में बैठे दुश्मन को भी पहचानो ।।

- जसवीर सिंह हलधर, देहरादून