कविता - डॉ. प्रतिभा सिंह

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सुनो न!

तूम्हारे प्रेम में होकर भी

तुम पर...

मैं नहीं लिख पायी कभी कोई प्रेम कविता

मन पर लपेटते हुए नेह के धागे

मैंने जब भी चाहा

प्रेम में पगे हुए

थोड़े से शब्दों को पिरोकर

गूंथ लूँ कोई कविता

वो मुझसे दूर छिटकते रहे

बहुत दूर....

कईयों ने प्रेम में पड़कर

गीत ग़ज़ल और कविताएं लिखी

किन्तु मैं ख़ामोशी से

देखती रही

अनुभूतियों के समंदर में

स्वयं को उतरते

और भागते हुए शब्द......!

- डॉ. प्रतिभा सिंह,आजमगढ़, उत्तर प्रदेश