प्रश्नवाचक बेकल नयन - अनुराधा पाण्डेय

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दीप थी मैं जली अनवरत रात भर,

धर्म  धारे रही, मत मढ़ो लांछना।

नेह इतना महज मिल सका था मुझे ,

भोर तक मैं किसी भाँति जलती रहूँ।

तुम स्वयं रंच कोई चुभन भी न लो ,

मैं अमा से लगातार लड़ती रहूँ।

ज्ञात तब भी मुझे थी कि तुम सूर्य की..

प्रात होते करोगे चरण वंदना ।

धर्म धारे रही मत मढ़ो लांछना।

बात मैंने कही सद्य जो भी तुम्हें,

अर्थ लेना न तुम भूल कर अन्यथा ।

प्रेम मसि बन गिरी पृष्ठ पर अनमनी,

यह बिना चाह ही ढल गई है व्यथा ।

प्रीत पूजा समझती रही हूँ सतत...

सूर्य से कम न है दीप की साधना ।

दीप थी मैं जली अनवरत रात भर,

धर्म धारे रही मत मढ़ो लांछना।

- अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका, दिल्ली