मासूम बचपन की - राधा शैलेन्द्र

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मानस-पटल पर धुंधले पड़ते जा रहे,

स्मृतियों के निशान,

मासूम बचपन से मुझे कोसो दूर ले जाते है,

और मैं दौड़ पड़ती हूँ अनचाहे, अनजाने में,

सयानेपन की होड़ में,

जिसमे खबरदारी-होशियारी के आलम में,

तन्हाई और सूनेपन के सिवाय अगर कुछ है तो

वह है कृत्रिमता की निस्सारता!

दौड़ती चली जा रही है ज़िन्दगी,

हर पल रोज़ अपनी रफ्तार में,

बंद होते जा रहे है मुठियों में रास्ते के अनगिनत,

खट्टे-मीठे-तीखे अनुभवों के तोहफे.

सपनो की बारात भी अब मुश्किल से सज पाती है,

पलको की पालकी में  देने को यूँ तो

क्या कुछ नही दिया इस जीवन ने,

लेकिन अफसोस है कि

ज़िन्दगी को मैं कुछ दे नही पाई.

कैलेंडर के पन्नो की तरह माह बीते, बरस बदले,

बदले बहुत कुछ और भी ,कुछ जाने, कुछ अनजाने

पर नही बदली तो हमारी दूरियाँ बढ़ाती

यूँ ही जीते जाने की नीयत....

हमारी कुंठाएँ बटोरती मानसिकता!

ऐसे में बेहद सालते है,

वह अतीत और उसकी असंख्य धुंधलाती स्मृतियाँ,

मासूम बचपन की!

- राधा शैलेन्द्र, भागलपुर, बिहार