हिंदी ग़ज़ल - जसवीर सिंह हलधर

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सभ्यता लौटी नहीं अब तक फिरंगी झील से ।

मोर लड़ लड़ मर रहे हैं  मांस खाती चील से ।

रोग कोरोना बड़ा या भूख इक मजदूर को  ,

प्रश्न पैदल चल रहा उत्तर लिए सौ मील से ।

जाहिलों की सोच ही भारी पड़े सरकार पर ,

रोशनी बाहर न आये कागजी कंदील से ।

दूध की नदियां बहाने की कसम खाते रहे ,

जंगलों से मुर्गियां भी छीन लाये भील से ।

सौ टमाटर बिक रहे हैं और नींबू पांच सौ ,

संतुलित भोजन करो ये हुक्म है तहसील से ।

आज इस माहौल में भी राजनैतिक खेल है ,

केजरी को रोहिंगिया लगते बतासा खील से ।

हिंदुओं के देवता कानून से डरने लगे ,

मस्जिदें बचती दिखें कानून के तामील से ।

यज्ञ की बेदी नहीं बारूद का घर मानिए ,

आग आगे बढ़ रही है मज़हबी तफसील से ।

हिंदुओं के देश में ही हिंदुओं को भय लगे ,

रोग "हलधर" बढ़ रहा है राजनैतिक ढील से ।

- जसवीर सिंह हलधर, देहरादून