ग़ज़ल - विनोद निराश
Sep 4, 2022, 22:58 IST
| पिघलकर मोंम सा, बन कर रह गया ,
हर जख़्म दिल पे, हँस कर सह गया।
जिन आँखों में बेशुमार ख्वाब रहते थे ,
अश्क बन कर हर अरमान बह गया।
जा रहा हूँ छोड़ कर अब तेरी दहलीज़,
टपकता आंसूं , आँख से ये कह गया।
फ़ाके ही खाये दिल ने तेरी गली में,
जख्मे-दिल यही, सोचता रह गया।
कल एक पुराना खत देखा किताब में,
दाँतो तले दबा के होंठ, हूक़ सह गया।
उसने देखा जो हक़ से वक्ते-रुखसत,
निराश ख्वाहिशों का महल ढह गया।
= विनोद निराश , देहरादून