गीतिका - मधु शुक्ला

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जीवन में सुख शांति, अहं खोकर मिलती,

स्वर्ण, रजत  से  नींद, नहीं  साथी  बनती।

जग  की  है  यह  रीति, मिले  जो  हम  बाँटें,

खारे  जल  से  प्यास, न  जीवों  की  बुझती।

अपनेपन  की  आस, वही  कर  सकता है,

हमदर्दी  की  रीति, जिसे  अच्छी  लगती।

जीवन   है   संग्राम, सुमन   की   सेज   नहीं,

समझे जब यह व्यक्ति, प्रगति तब हो सकती।

जितना   संभव   आप,  करें   सबकी   सेवा,

रिश्तों   से   उम्मीद,  दुखी   मन   को  करती।

जीना  यदि  सानंद, लखो  निज  कर्मों  को,

देने   से   उपदेश ,   सदा   इज्जत   घटती।

संयम ,  शिष्टाचार,  मधुर  वाणी  का  धन,

लेकर   आये   प्रेम,  दुआ  सिर  पर  रहती।

- मधु शुक्ला, सतना, मध्यप्रदेश