अहसास - मीरा पाण्डेय

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अहसास हैं मुझे मेरे नारी होने का.

गौरवान्वित और मर्यादित होने का.

मैं कब कहती हूँ मर्यादा की ओढ़नी सर पे नहीं रखूगी.

पर उससे पहले आखो में हया का पर्दा रखूगी.

मैं तुम्हारी कही बातो को शर्त नहीं

ये फर्ज मानती हूँ.

अहसास हैं मुझे तुम्हारे कहे सब्दो का.

पर सुनो.

थोड़ा तुम भी बदलो. रह के मर्यादा में मुझसे बोलो.

मुझे अहसास हैं अपने नव सरूप का

मैं अहसास करती हूँ ये ना बदले कभी.

क्या तुम नहीं देखते.

जिम्मेदारी की चक्की मैं खुस हो कर बारीकी से पिसती हूँ. कोई कंकर ना लगे मैं

मैं ऊँगली तक छील लेती हूँ.

कोई तुम्हे कुछ कहे उससे पहले बातो का रुख खुद पे मोड़ लेती हूँ.

थोड़ा तुम भी बदलो रह के मर्यादा में मुझसे बोलो.

मान मर्यादा उच नीच बस मेरे लिए क्यूँ

कभी उन तराजू पे खुद को रख के तोलो.

मैं दाबा करती हूँ तुम बेहतर समझोगे.

ना खुद तुम कभी बुरे निष्कर्ष पे जाओगे.

ना हमे अग्निपरीक्षा के लिए चुनोगे.

मुझे सब मान्य हैं समर्पण करती हूँ तुम्हारी बातो के आगे.

थोड़ा तुम भी बदलो रह के मुझसे मर्यादा में बोलो..

ना बात टीसेगी ना कोई ज़ख्म लगेगी.

बस तुम अहसास समझ लो.

बाकी सब मैं कर लगी.

- मीरा पाण्डेय, दिल्ली