दरमियां अपने- राधा शैलेन्द्र

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साँसों पर पहरा कैसा

खुद की चाहत से गिला कैसा

कट ही तो रही है जिंदगी रफ्ता-रफ्ता

उसके मिजाज से पर्दा कैसा!

बावस्ता जारी है सफर

सुबह और शाम की तरह

उसके इस खेल से रंजिश कैसा!

तकलीफें पनपती है

रिश्तों के दरमियाँ ही तो

जो गैर है उनसे शिकायतों का

तसव्वुर कैसा!

जिंदगी रेत की तरह ही तो

फिसल रही है हरेक लम्हा

उसे रोकने की करूँ भी तो

इल्तिजा कैसा!

जिंदगी कहाँ देती है मौका

बहुत कुछ कर गुजरने का

बस प्यार रह जाये दरमियां अपने

रिश्तों में कड़वाहट कैसा?

- राधा शैलेन्द्र, भागलपुर, बिहार