किंतु-परंतु - प्रदीप सहारे

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आज थोड़ा लंगडाते,

हमारा परममित्र,

नाम उसका रामभाया।

हमारे घर आया ।

मैंने,

मज़ाक में पूछा,

क्या हुआ भाया ?

क्या ?

घर में हुआ ,वाद विवाद ।

फलस्वरुप मिला है,

कुछ प्रसाद..

या प्रसन्न हुई,

भाभी जी की छाया।

अचानक सारा,

प्यार उमड़ आया ।

फिर वह,

सहज होकर ,

करने लगा बात ।

सुबह बैठकर,

चाय पी रहें थे साथ।

चल रहीं थी कुछ,

नयी पुरानी बात ।

पुरानी बात पर,

चालू थी, तू मैं तू,

किंतू परंतु...

किंतू परंतु में ,

उलझी कुछ बात।

नहीं समझ रही थी यथार्थ।

यथार्थ को समझाने,

दिया एक तथ्य ।

तेरी सहेली बिमला से,

चल रही थी मेरी बात।

किंतु उसने नही दिया साथ।

परंतु तुमसे चली बात तो ..

हो गये एक साथ ।

सुन वह,

खुशी से हुई खड़ी तो !!

चाय की केटली,

पैर पर पडी ।"

इतना सुन..

मैं बोला,

मैं सब समझा,

प्यारे रामभाया,

धन्य हैं तू...

धन्य तेरी महामाया ।"

️प्रदीप सहारे, नागपुर, महाराष्ट्र