किताबें - किरण मिश्रा

सच !
किताबें ,
सिर्फ किताबे नहीं होती ।
जाने कितनी पलकों के अश्रुकुन्ड समेटे,
रिसती रहती हैं अक्सर पन्नों पर।
कितने दर्दों की बोझिल
बदली से आद्र हो
बरस उठती हैं अक्सर
नाटकीय किरदारों का रूप ले।
छलछलाती हैं ,
पन्नों पर सतरंगी भावनाओं में रंग।
जाने कितने तूफान
रोक लेती हैं ,
पन्नों में तबाही से पहले।
फिसलते, सरसराते,
जज्बातों को समेट ,
कविता,कहानी,
रेखाचित्र का रूप ले
बचा लेती हैं कितने ही
एकाकी मन को, टूटन से।
किताबें कब, कहाँ हमें
एकाकीपन महसूस होने देती है ,
बहलाती हैं,
दुलराती है,कभी माँ सी,
लोरियाँ सुनाती हैं ।
तो पिता सी सहलाती हैं माथे को,
ख्वाबों ख्यालों की दुनिया की सैर करा ,
भरती हैं पलकों में नींद का आँजन।
हाँ किताबे भी
मित्र, सहेली बन हमें हँसाती,
रूलाती और हमारा मन बहलाती हैं।
सच किताबें ,
सिर्फ किताबे नहीं होती।
जिन्दगी का सार होती हैं
जिंदगी के साथ भी,
जिंदगी के बाद भी...ये बहुमूल्य किताबें !
#डा किरणमिश्रा स्वयंसिद्धा, नोएडा