उमस - आशा पराशर

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लगता है बादल रूठ गए ,

हवा रुक-रुक कर आ रही है ,

सॉस लेना दुश्वार हुआ ,

उमस भी बढ़ती जा रही है।

न कुछ सुनते है , न कुछ कहते है वो ,

एक हम ही है सब कुछ सहते है जो।

बुलाने से भी अब नहीं आते ,

कितनी शिद्दत से उनको बुला रही ,

उमस है कि बढ़ती ही जा रही।

इल्तेज़ा थी कि वो कुछ कहे , कुछ सुने ,

सारे शिकवे सावन की बूंदों संग बहे ,

रूठने की भी कोई वजह होगी ,

न वो बोले , न नज़रे बता रही ,

उमस है की बढ़ती ही जा रही।

मौसम आये और आकर चले भी  गए ,

बेरुखी उनकी कोई कब तक सहे ,

बिजलियाँ जो चमकती है चमकने दो ,

बेवजह वो गुस्सा दिखा रही ,

उमस है की बढ़ती ही जा रही।

- आशा पराशर , जयपुर (राजस्थान)