ये बूंदे = पूनम शर्मा स्नेहिल

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रह गई खामोश सी अब,
गलियां सभी देखो यहां।
होती थी जहां महफिलें ,
आज वीरानियां बस गई वहां।
खिल खिलाहट से गूंजा ,
करते थे जो ये पार्क सभी ।
आज वहां बेंच पर ,
बैठी हैं तन्हाईयाँ  ।
रिमझिम बरखा की बूंदे ,
ये कितनी आज उदास है।
हृदय में इनके भी तड़प रही ,
स्नेह की ही बस प्यास है।
पर फिर भी शेष इनमें ,
अभी थोड़ा सा विश्वास है।
बदलेगा यह दौर भी,
आएंगी लौट के किलकारियां।
छा जाएगी रौनक ,
लौट आएंगी वो अठखेलियां,
जहां आज बिखरी हुई ,
बस एक है खामोशियां।।
®पूनम शर्मा स्नेहिल, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश