रिश्ते = नीलकान्त सिंह

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तुम्हें हम, कुछ भी क्यों कहें,

कौन होता हूं मैं,जो कुछ कहें।

जब भी मैंने कुछ कहना चाहा,

बात मेरे मुंह में ही रह गयी,

रिश्तों की बात कौन करता है,

रिश्ते तो केवल बेचैन ही रहे।

जब भी खुशियों की बारी आयी,

तुमने दे दी दुखों की अंगड़ाई,

चोट खाने की अब ताकत नहीं,

 रिश्तों का चोट दिल कैसे सहे ?

तुम हो गये एक, मुझको छोड़ अकेला,

रिश्तों की भीड़ में मैं बना पैरों का ढेला,

अब ऊपर से टूटे दिल पर तुम हंसते हो,

ये टूटा दिल अब किसी से क्या कहे ?

अब नहीं मुझे किसी से कुछ कहना,

अब नहीं किसी से कहीं है मिलना,

 तुमने जो कुछ कहा, जो मैंने कुछ कहा,

अच्छा है, भूलकर एक-दूजे को रहें।

तुम्हें हम, कुछ भी क्यों कहें,

कौन होता हूं मैं,जो कुछ कहें।

= नीलकान्त सिंह नील, मझोल , बेगूसराय