कविता (पनघट बनाम मरघट) = जसवीर सिंह हलधर

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जहां देह की प्यास बुझे वो कहलाता पनघट है ।

जिसे  प्राण  देकर पाते  हैं कहलाता मरघट है ।।

एक घाट प्यासे राही  जल पीते और नहाते हैं ।

वहीं दूसरी ओर आग में लाश जली पाते है ।

किसके पास बही खाता सांसों का लेखा जोखा ।

एक  तरफ जन्मोत्सव  है तो दूजे मौत झरोखा ।

जीवन रूपी जल धारा बहती रहती सरपट है ।।

जहां प्यास प्राणों की बुझती कहलाता पनघट है ।।1

इधर घाट पर रूप दिखाते माया नहीं रुकी है ।

उधर चिता में जलते जलते काया नहीं थकी है ।

जन्म मरण के धागों का ये कैसा जाल बना है ।

एक तरफ माया के करतब दूजे काल तना है ।

दोनों अपना काम करें क्या सुनी कभी खटपट है ।।

जहां प्यास प्राणों की बुझती कहलाता पनघट है ।।2

एक तरफ कोलाहल देखो लगा हुआ है मेला ।

और दूसरी ओर मौन है परम शांति की बेला ।

एक तरफ धरती के किस्से खाना और खजाना ।

दूजे जन्नत का बहकावा काल रूप तहखाना ।

एक तरफ जगती का मेला दूजे शव जमघट है ।।

जहां प्यास प्राणों की बुझती कहलाता पनघट है ।।3

अंतस का सौंदर्य काव्य है केवल यही अमर है ।

धरती घट का घाट मान जीवन ये एक सफर है ।

कितने महल बने दुनियां में क्या कोई रह पाया ।

जीवन भर जोड़ी दमड़ी क्या साथ गयी है माया ।

शब्द साधना सच "हलधर" बाकी कूड़ा करकट है।।

जहां प्यास प्राणों की बुझती कहलाता पनघट है ।।4

= जसवीर सिंह हलधर, हलधर