कविता (पनघट बनाम मरघट) = जसवीर सिंह हलधर
Updated: Jun 24, 2021, 21:53 IST
| जहां देह की प्यास बुझे वो कहलाता पनघट है ।
जिसे प्राण देकर पाते हैं कहलाता मरघट है ।।
एक घाट प्यासे राही जल पीते और नहाते हैं ।
वहीं दूसरी ओर आग में लाश जली पाते है ।
किसके पास बही खाता सांसों का लेखा जोखा ।
एक तरफ जन्मोत्सव है तो दूजे मौत झरोखा ।
जीवन रूपी जल धारा बहती रहती सरपट है ।।
जहां प्यास प्राणों की बुझती कहलाता पनघट है ।।1
इधर घाट पर रूप दिखाते माया नहीं रुकी है ।
उधर चिता में जलते जलते काया नहीं थकी है ।
जन्म मरण के धागों का ये कैसा जाल बना है ।
एक तरफ माया के करतब दूजे काल तना है ।
दोनों अपना काम करें क्या सुनी कभी खटपट है ।।
जहां प्यास प्राणों की बुझती कहलाता पनघट है ।।2
एक तरफ कोलाहल देखो लगा हुआ है मेला ।
और दूसरी ओर मौन है परम शांति की बेला ।
एक तरफ धरती के किस्से खाना और खजाना ।
दूजे जन्नत का बहकावा काल रूप तहखाना ।
एक तरफ जगती का मेला दूजे शव जमघट है ।।
जहां प्यास प्राणों की बुझती कहलाता पनघट है ।।3
अंतस का सौंदर्य काव्य है केवल यही अमर है ।
धरती घट का घाट मान जीवन ये एक सफर है ।
कितने महल बने दुनियां में क्या कोई रह पाया ।
जीवन भर जोड़ी दमड़ी क्या साथ गयी है माया ।
शब्द साधना सच "हलधर" बाकी कूड़ा करकट है।।
जहां प्यास प्राणों की बुझती कहलाता पनघट है ।।4
= जसवीर सिंह हलधर, हलधर