पथिक - नीलकान्त सिंह

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पल-पल मारा फिरता हूँ,

तम की अग्नि में जलता हूँ

जग में बनकर मतवाला मैं,

कुत्सा-अपमान-अवज्ञा सहता हूँ,

अथाह पीड़ा में जीता हूँ मैं,

फिर भी हॅंसता और हॅंसाता हूँ

तम के सम्मुख थिरकता हूँ,

दु:खों का ताज लिए गरजता हूँ,

था ऑंखों के तारे जिसके,

बनकर काटे अब रहता हूँ

गूज रहा रुदन-स्वर मन में,

पल रहा शोक अंतर्मन में,

पीकर उदासी मैं हॅंसता हू,

जैसे तैसे अब जीता हू।

जितना आत्म समर्पण करता हू,

उतना ही स्वयं को मृत पाता हू,

मूक-बधिर जीवन में जीता हू,

स्वप्नों को जलाता और धोता हू।

अंतर्मन में एक प्यास है,

केवल दुखों की ही आस है,

अब दोहरापन में जीता हूँ,

फिर अंतर्मन से मरता हूँ

कैसा पथिक , नहीं जानता हूँ,

पथ पर डिगते-डिगते चलता हूँ,

पल-पल मारा फिरता हूँ,

तम के अग्नि में जलता हूँ

- नीलकान्त सिंह नील, मझोल, बेगूसराय