किसानों की दयनीय दशा = बबिता पाण्डेय
जनसंख्या, नगरीकरण, नित हो रहा प्रसार,
खेती- बाड़ी घट रही, पड़ी कृषक को मार।
कहने को कहते सभी, भारत कृषक प्रधान,
कृषकों के दु:ख का मगर, मिलता नहीं निदान।
धरती माँ के लाल हैं ,जग के पालन हार,
घर भीतर हल है धरा, बैल बँधे हैं द्वार।
दीन कृषक के सामने, जुमले-भाषण फेंक,
नेता अपनी रेटियाँ, रहे निरंतर सेंक।
बिगड़ी दशा किसान की, नाज नहीं है गेह।
सूखे सारे खेत हैं, नैनन बरसे मेह।
कृषकों के हालात से, है किसको दरकार,
मज़े उड़ाये आढ़ती, लाभ धरे सरकार।
श्रम से पैदा राशि कर, पाले सबका पेट,
फिर भी मेहनत का उसे, मिले न वाज़िब रेट।
अपने हक से ही सदा, रहा कृषक अनजान,
ब्याज चढ़ाकर सेठ जी, करते हैं जलपान।
अपने दुक्खों को बयाँ, किससे करे किसान,
सत्ता जिनके हाथ में, तनिक न देते ध्यान।
पालक कर्ता देश के ,पाते कभी न मान,
कृषक हुए बदहाल पर, भारत देश महान।
कृषक सोचता बैठ के, रोपें कैसे धान,
सावन में सूखा पड़ा, रूठा है भगवान।
जल बिन संभव है नहीं,कोई पैदावार,
अति बारिस में भी भला ,कैसे बोयें ज्वार।
सही समय पर कब मिले, बिजली खेले खेल,
सूखी फ़सल खरीफ़ की,जल से हुआ न मेल।
खून पसीने को बहा, हलधर बोते खेत,
लेकिन उसके भाग्य में, सिर्फ दु:खों की रेत।
कई पुस्त के कर्ज का ,कृषक चुकाए ब्याज़,
खून चूसते सेठ जी ,तनिक न आये लाज।
दब कर्ज़े के बोझ से,,उलझा हुआ किसान,
कैसे पाले पेट को , नहीं उसे है भान।
फसलों पर निर्भर कृषक , काम करें दिन रात,
लेकिन सूखा - बाढ़ से , बिगड़े सब हालात।
बहा पसीना रात दिन,कृषक हुआ लाचार,
सहे प्राकृतिक आपदा, सरकारों की मार।
रोटी छीन किसान की, नित्य भरे भंडार,
अपने पैरों आप ही, रहे कुल्हाड़ी मार।
धूप- छाँव देखे बिना , मेहनत करे किसान,
फिर भी मिलता है नहीं, प्रेम-भाव,सम्मान।
हरित देवता हैं कृषक ,धरती के सरताज,
नित्य अथक श्रमदान से, पैदा करें अनाज।
बड़े बड़े वादे करें , बन कृषकों के मीत,
कागज़ में है लाभ सब,यह सत्ता की रीत।
रोज बनाये जा रहे, नीति और प्रारूप,
जाने कब देंगे मगर, इनको अमली रूप।
= बबिता पाण्डेय, दिल्ली