वेदने ! तू धन्य है री = अनुराधा पांडेय

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वेदने ! तू धन्य है री......
काव्य का श्रृंगार करती ।
जो न होता यह विरह तो ,
व्यंजना होती मुखर कब ?
भाव के फिर पग न होते ,
शब्द मिलते ही सुघड़ कब ?
भावना मैं फिर हृदय की -
खाक क्या साकार करती ?
काव्य का श्रृंगार करती ।
इस हृदय की आह ही तो,
साँस में उन्माद भरती ।
पीर की मसि ही जगत में,
तूलिका में नाद भरती ।
चित्त की गुंफित व्यथा ही-
स्वर्गमय अभिसार करती ।
काव्य का श्रृंगार करती ।
रीत जाते मोद के क्षण,
ऊबती जब चेतना है ।
पृष्ठ पर आकर हृदय के,
पालती तब वेदना है -
सच कहूँ तो यह तड़प ही-
चेतना को सार करती ।
काव्य का श्रृंगार करती ।
शत नमन आदिम तपन को,
है नमन चिर दंश को भी ।
धन्य कहती मैं अनादृत
सृष्टि के इस अंश को भी ।
पुष्प से इस शूल हित मैं-
शुद्ध मन आभार करती ।
काव्य का श्रृंगार करती ।
= अनुराधा पांडेय , द्वारिका, दिल्ली