मिलन अनर्थ से अर्थ का = युक्ता पारीक

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जन्मा शिशु प्राप्त हुई थी बालक अवस्था,
जो कहलाई गई जीवन की प्रथम अवस्था। 
बोध न था उचित-अनुचित के मध्य का,
फिर भी हो रही थी ज्ञान देने की पूरी व्यवस्था। 

बटोर ज्ञान आन पहुँचा युवा अवस्था, 
लोभ, मोह, काम, में भूली समस्त चिंता।
लक्ष्य के उदेश्य की न थी कोई इच्छा, 
ऐशो-आराम में गुजार दी सबसे अहम अवस्था।

प्रवेश करते ही उलझी अब गृहस्थ अवस्था,
संतान के ज्ञान की अनुभव हुई आवश्यकता। 
वक़्त के साथ लगने लगा लाठी का सहारा, 
करने लगा महसूस स्वयं को जीवन से हारा। 

बीत चली जीवन की अब अंतिम वृद्ध अवस्था,
फ़िर भी मिटी नहीं आकांशाओ की सीमा। 
अंत के समीप शेष आत्मज्ञान की परीक्षा, 
स्वयं को कितना पाया यह प्राप्त प्रश्न सुचिका।

उत्तर पाने से पूर्व ही टूटी प्राण नलिका, 
सारी उम्र आत्मज्ञान के ढूँढते रहा तरीका। 
जाना नहीं खुद ने वह स्वयं ही है उत्तर उसी का,
सही तलाश के चलते पार करता रहा हर एक अवस्था। 

ज्ञानी हो कर भी वो अज्ञानी कहलाया, 
समझने आत्मज्ञान को सारा जीवन बिताया। 
चिंतन हृदय मस्तिष्क से करने का प्रयास तक न किया, 
समक्ष हो कर भी आत्मज्ञान को देख न पाया। 

मुर्ख मैं था जो महत्व जान न पाया, 
यात्रा कर भी यात्रा को समझ न पाया। 
जीवित मैं नहीं मगर आप जरूर हो, 
आत्मज्ञान प्राप्ति का रास्ता भी स्वयं आप हो।

जो भूल मैंने की वो आप न करना,  
हो प्रश्न कभी तो खोज स्वयं के भीतर की करना। 
हल पहले भी आप थे और सदा आप ही हो, 
यात्रा चाहें जो भी हो समाधान के मुसाफ़िर हमेशा आप हो।
= युक्ता पारीक, किशनगढ़, अजमेर (राजस्थान)