क्या बताऊँ मौन वाणी,
भाव वर्णन से परे हैं ,
प्रेम की पहली छुवन के....
शब्द बौने क्या भला ये ,
प्रेम के उपमान होंगे ।
लग रहा ज्यों शब्द में कुछ,
कह दिया तो म्लान होंगे।
मोक्ष जैसे भाव होते -
द्वय हृदय के शुचि मिलन के ।
प्रेम की पहली छुवन के....
उन तरल अनुभूतियों की ,
ढूंढ़ते मिलती न उपमा ।
दृश्य जग की वस्तुओं से,
कुछ न कुछ है बद्ध लघिमा ।
क्रांति होती जब प्रणय की ----
स्वर्ग नत लगते गगन के ।
प्रेम की पहली छुवन के.....
भोर की पहली किरण या
जेठ में पावस झड़ी -सी ।
या कि शैशव थाम ले कर ,
एक पावन फुलझड़ी-सी ।
दृश्य ये भी हैं निमिष भर -
राग के उन अवतरण के ।
प्रेम की पहली छुवन के....
कार्य कारण से परे ये,
जड़ गणित कब मानते हैं।
नद्ध मन होते अकारण ,
प्रेम हठ जब ठानते हैं।
पूछ कर हैं कब महकते----
पुष्प अंतरतम विजन के ।
प्रेम की पहली छुवन के.....
जब मधुर वो लौ जली थी,
क्या कहूँ कैसी लगी थी ।
पारलौकिक वंद्य रस में,
आत्मा -मानो पगी थी ।
वंदना रत पूज्य हित थी----
नम्य शुचि रज थे चरण के ।
प्रेम की पहली छुवन के.....
गंध रस ध्वनि गीत गायन,
था चतुर्दिक एक ही स्वर ।
इस धरा से उस गगन तक ,
मात्र इक था प्रेम निर्झर।
मै बनी सर्वत्र रति सी ----
गीत गाती थी मदन के ।
प्रेम की पहली छुवन के.....
- अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका , दिल्ली