एकाकीपन - प्रदीप सहारे

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एकाकीपन नहीं ,

नहीं है कोई वहम।

सच कहूं तो !

एकाकीपन में,

बेचैनी है ज्यादा।

तकलीफ ,

कुछ ज्यादा कम।

एकाकीपन और मन।

समझता ज्यादा कौन?

जो देते एकाकीपन !

शायद नहीं...

समझती हैं वह,

छत की तरफ,

एक टक आँखें

चादर की सलवटें।

सिरहाने का तकिया,

जो बार बार,

बदलता अपनी जगह।

सुबह के इंतजार में,

शायद कुछ हो,

अच्छा...!

- प्रदीप सहारे , नागपुर , महाराष्ट्र