सुनो ना = पूनम शर्मा स्नेहिल

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वो जो रख रखी थी ,

पाती मेरे नाम की

खिड़की पर ,

आज भी तुम्हारी राह तकती है।

आती-जाती मौसम की हवाओं से,

अक्सर कुछ बातें कहती है।

तुम होते तो ऐसा होता ,

तुम होते तो वैसा होता।

जाने कितने ख्वाब ,

पलकों में सजाती है

और फिर बेवजह ,

बीती सभी बातों को दोहराती है।

लिपट सारी रात ,

तकिए से रो-रो कर बताती है।

उठ सुबह फिर नई उम्मीदों से,

खुद को सजाती है।

देख सूरत अपनी,

खुद ही इतराती है

हरश्रृंगार उसे ,

तुम्हारी मौजूदगी का एहसास कराती है।

थोड़ी सकुचाती थोड़ी शर्माती,

फिर वह अपने कार्य में जुट जाती है।

दिन तो गुजर जाता है ,

पर सांझ ढले

उसी खिड़की से तुम्हारी याद ,

चुपके से चली आती है।

कुछ वक्त संग बिता ,

जगह जज्बातों को मेरे कहीं गुम जाती है।

बेचैन सी हो जाती हूं ,

तुम्हारी यादों के बिना।

खिड़की पर रखा खत,

आज तक नहीं पढ़ा मैंने।

ये सोच कि ना जाने क्या,

लिखा होगा उसमें तुमने।

खयालों में ही सही ,

तुम्हारे साथ वक्त गुजार आती हूंमैं।

खुश रहना तुम सदा ,

हर पल बस यही दुआ मनाती हूं मैं।।

= ®पूनम शर्मा स्नेहिल, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश