सिंहनी = मीनू कंवर

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सिंहनी बन सिंह को जाया,

मति किस मनुज की मारी है!

नारी से ही नवयुग चलता,

नारी नहीं बिचारी है!

जब-जब कोपी प्रलय भयंकर,

आई हर युग में भारी है!

नारी बिना जन जीवन सुना,

जग कि यह महतारी है!

अंध हवस की भूख में,

जग का विध्वंस हो रहा!

कहीं बालक कहीं युवती,

तू वृद्धा को ना छोड़ रहा!

पुष्प कमल की भांति अनुपम,

सृष्टि की रचियता है नारी,

अपने मत कि अधिकारी है!

भूल गया तो सोच समझ ले,

नारी अब नहीं बिचारी है!

इंसानियत को शर्मसार किया,

नवयौंवन को नोच रहा !

ईश्वर की अनुपम कृति को,

जगह जगह पर रौंद रहा,

उसका ही यह परिणाम,

रे मूर्ख तू नहीं देख रहा !

आंचल आज बना है कफन,

एक दूजे को छूने से मर रहा !

ईश्वर के घर देर है अंधेर नहीं,

यह तेरे ही कर्मों की सजा है,

इसमें कोई संदेह नहीं !

- मीनू कंवर,  जयपुर, राजस्थान