ढक्कन = प्रदीप सहारे

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उसने मुझे बोला,

" अबे. ढक्कन "

सुन,

हुवा क्रोधित मन

लडने पर हुवा उतारू।

गाली देना किया शुरु

पकडी कॉलर ,

लगा दिये दो दना दन

हुआ थोड़ा शांत मन

शांत हुआ मन तो,

देखा इधर-उधर

सब तरफ आयें,

ढक्कन ही नज़र

देख मन हुआ धन्य,

लगा बिना ढक्कन।

सब जीवन शून्य

शून्य नज़र से,

देखना किया शुरु

तो।

ढक्कन ही निकला,

सबका गुरु

गुरु की कहानी,

अपनी जुबानी।

" नहीं कोई इसमें,

दोहरा, दूजा मत

डिब्बा हो या बोतल।

या हो कहानी, कविता,

न्याय, अन्याय का,

फैसला लिखने वाली कलम

या हो हमारा जीवन,

ढक्कन की महत्ता,

नहीं हैं कम...

बिना ढक्कन, अधूरा जीवन

= प्रदीप सहारे , नागपुर (महाराष्ट्र)