कविता - शिप्रा सैनी 

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मेरी बालकनी से सटा,

एक पेड़ है खड़ा।

उसमें है एक घोंसला,

जिसमें है अंडा पड़ा,

" कौवे का "।

जब भी बालकनी में आती हूँ,

सजग वह हो जाता है।

घोंसले की निगरानी को,

आसपास मंडराता है।

मेरी ही दी हुई रोटी को खाता है ।

पानी भी कांव-कांव कर मांगता है।

विश्वास था उसे तभी ,

चुना उसने पेड़ ये।

नहीं कुछ हानि करेंगे,

इस घर में रहने वाले ।

फिर भी विकल रहता है ।

"विश्वास में भी सजगता "

           या

" सजगता के साथ विश्वास"

= शिप्रा सैनी (मौर्या), जमशेदपुर