कश्मीर - दीपक राही

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कश्मीर तुम्हें यूं ही नहीं कहते,

कुदरत का नायाब यूं नहीं कहते।

तुम ही तो हर मौसम का रंग दिखलाते,

पल-पल बदलते अफसानों को महकाते,

बाग-बगीचे तुमसे ही खिल जाते,

कश्मीर तुम्हें यूं ही नहीं कहते,

कुदरत का नायाब यूं नहीं कहते।

तेरे लिए सब मर मिट जाते,

इसीलिए तो सर का ताज हैं कहते,

तुम ही धरती का स्वर्ग कहलाते,

बर्फ़ की चादर ओढ़ कर,

सहलानियों का मन हो बहलाते,

कश्मीर तुम्हें यूं ही नहीं कहते,

कुदरत का नायाब यूं नहीं कहते।

पल पल बदलता हैं मिज़ाज तेरा,

मेहमान नवाजी  का प्यार तेरा,

तेरे आंचल में कुदरती एहसास तेरा,

प्यार मौहब्बत का पैगाम तेरा,

नफ़रत की सियासत से होता शिकार तेरा,

कश्मीर तुम्हें यूं ही नहीं कहते,

कुदरत का नायाब यूं नहीं कहते।

चार चिनार और शिकारे की सवारी

लगती सबको बहुत न्यारी,

इसीलिए पूरे भारतवर्ष के लोग,

डल झील के लेते न्यारे,

कश्मीर तुम्हें यूं ही नहीं कहते,

कुदरत का नायाब यूं नहीं कहते।

तुझ पर गिरा यह रंग लाल कैसा,

यह आंसूओं का शैलाब कैसा,

गहरे जख्मों का नकाब कैसा,

चीखता चिल्लाता यह स्वर्ग कैसा,

आजादी का फैला धुआँ कैसा है,

खुशहाल वादी में कहर कैसा,

धरती के स्वर्ग यह खिलवाड़ कैसा,

कुदरत का यह नायाब कैसा,

कुदरत का यह नायाब कैसा।

- दीपक राही, आरएसपुरा, जम्मू-कश्मीर