कागा = शिप्रा सैनी

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कागा काँव-काँव करते हो,क्यों आँगन में आकर मेरे।
अभी कहाँ कोई आएगा, खड़ा रोग का भय है घेरे । 

जानते नहीं तुम हे कागा, वह विषाणु बहुत ही छोटा है।
पर ली कई लोगों की जान, वह दुष्ट बहुत ही खोटा है। 

जो निकलेंगे घर से बाहर, डस लेगा नागिन के जैसे।
बनेंगे हम जहर के वाहक, डस लेंगे औरों को वैसे। 

न हम भी जा सकते हैं कहीं, न कोई यहाँ आ सकता है।
विचरण का उन्माद कहीं भी, मन ही मन में दब जाता है। 

तुम उड़ते आकाश में ऊँचा, जिससे चाहे मिल सकते हो। 
तुम क्या जानों पीर हमारी, क्यों हमें चिढ़ाया करते हो। 

बेहतर स्थिति में हो कागा, खुश रहो और आबाद रहो।
हम सब भी घूमेंगे जल्दी , तुम इतना न इतराया करो। 
= शिप्रा सैनी (मौर्या ), जमशेदपुर