मैं प्रणय वक्ष में - अनुराधा पाण्डेय
आँख ढपती रही, आँख खुलती रही
मैं प्रणय वक्ष में, स्वप्न बोती रही ।
एक युग तक उनींदी, कभी मैं रही ।
क्या कहूँ वे विरह की, विकल रात थी ।
झेल कर हर चुभन साँस चलती रही ,
पीर की किन्तु नित द्वार बारात थी ।
एक मुस्कान भूले अधर पर न थी ,
और कुछ भी न था, मात्र रोती रही ।
मैं प्रणय वक्ष में--
जब हुई अति बलित-सी प्रणय साधना,
आ गये तुम खींचे प्रेम रनिवास में ।
बन गई यम निशा इक मिलन यामिनी,
साथ में द्वय लसे सद्य मधुमास में ।
श्वास से मैं तुम्हारे तरंगित हुई...
औ अधर प्राणपन से भिगोती रही।
मैं प्रणय वक्ष में---
प्रेम रस में रही मैं सराबोर-सी ,
बात अधरोष्ठ की नैन कहते रहे ।
एक संसार था जो परे शब्द से ,
स्वर्ग नद में उभय प्राण बहते रहे ।
ज्ञात यह भी न था उस प्रणय काल में,
मैं जगी या सतत मग्न सोती रही ।
आँख ढपती रही आँख खुलती रही ।
मैं प्रणय वक्ष में स्वप्न बोती रही ।
- अनुराधा पांडेय, द्वारिका , दिल्ली