ग़ज़ल - मुकेश लाडों शर्मा

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छू कर गर्दिश को भी मैं अकेला ही रहा |

मंजिल पास थी फिर भी भटकता ही रहा ||

यूँ तो शान बहुत है शहर में मेरी रब्बा |

फिर क्यों अन्दर ही अन्दर तन्हा ही रहा ||

पुत गई उदासी सी खुशियों पर मेरी यूँ |

मुसाफिर मैं अकेला, अकेला ही रहा ||

खाई थी कसमें साथ साथ चलने की  |

मन मेरा उलझा सा, उलझता  ही रहा |l

हुबाब सा था तेरा प्यार मैं समझ न सका |

हर दर ब दर 'मुकेश 'बस ढूंढता ही रहा

- मुकेश लाडों शर्मा, पानीपत (हरियाणा)