ग़ज़ल - अर्चना लाल

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हैं दबी हुईं मेरी ख्वाहिशें , तू भी कुछ न कुछ तो दबा रहा।
जो हुई न बात थी दरमियां , उसका भी तुझको गिला रहा।

तू किताब है मेरी जीस्त की, सो पहेलियाँ तू बुझा रहा।
इन अनबुझी-सी पहेलियों , में फँसा रुआब दिखा रहा।।
मेरी हसरतें मेरी आरज़ू ,सरगोशियाँ मुझसे करे।
सज़दा किया जिसको नसीब में मायूसी वो ख़फ़ा रहा।।

जितनी भी कर हो'शियारियां , पर छोड़ जाये' सुराग़ भी।
करता गुनाह जो ख़ुद वही ,सबको सज़ा भी सुना रहा।।

नहीं दिल से दिल का यूँ फासला , न रहा कभी न रहेगा' भी।
ये जो काफ़िला तेरी याद का , मेरे साथ-साथ सदा रहा ।।

कभी आयतों में भी ढूँढना , मैं वही खड़ी  हूँ लो आज भी,
मेरे ज़ख़्म की मत पूछना , जब भी छुआ वो हरा रहा।।

वो ख़याल ख़्वाब की दस्तकें , वही पासबाँ वही महफ़िलें ,
कहे 'अर्चना' तेरी याद का, इस दिल में सुख ये भरा रहा ।।
= अर्चना लाल, जमशेदपुर