ग़ज़ल (हिन्दी) - जसवीर सिंह हलधर
Oct 31, 2021, 22:41 IST
| कथ्य की मरने लगी अब अर्थगत संभावनाएँ!
सत्य को अभिव्यक्त करने बोल दो किस देश जाएँ !
आ रहें हैं सात दसकों से शिलायें पीसते हम ,
लोग पत्थर के हुए हैं मर गयी संवेदनाएँ!
रोज विष का पान करती रो रही गंगा हमारी ,
युक्तियाँ पायी नहीं जो रोक दें दूषित प्रथाएँ !
काव्य भाषा छंद वाला रुक गया साहित्य का रथ ,
मंच के कुछ नामधारी व्यर्थ करते गर्जनाएँ!
कौन समझेगा हमारी कौम की अंतर व्यथा को ,
यंत्र युग में मंत्र अपनी खो चुके वैदिक ऋचाएँ!
दर्द दुनिया में हमारा कौन जानेगा बताओ ,
पाठकों को खोजती हैं अब किताबों में कथाएँ !
सात तारे आसमां के क्षुब्ध दिखता चंद्रमा भी ,
धुंध ने धरती ढकी है लुप्त सूरज ज्योत्सनाएँ !
मौन वृत धारण किया है मध्यमा औ वैखुरी ने ,
नाद पश्यंती ,परा का मौन "हलधर "सब दिशाएँ !
- जसवीर सिंह हलधर, देहरादून