ग़ज़ल (हिन्दी) - जसवीर सिंह हलधर

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कथ्य की मरने लगी अब अर्थगत संभावनाएँ!

सत्य को अभिव्यक्त करने बोल दो किस देश जाएँ !

आ रहें हैं सात दसकों से शिलायें पीसते हम ,

लोग पत्थर के हुए हैं मर गयी संवेदनाएँ!

रोज विष का पान करती रो रही गंगा हमारी ,

युक्तियाँ पायी नहीं जो रोक दें दूषित प्रथाएँ !

काव्य भाषा छंद वाला रुक गया साहित्य का रथ ,

मंच के कुछ नामधारी व्यर्थ करते गर्जनाएँ!

कौन समझेगा हमारी कौम की अंतर व्यथा को ,

यंत्र युग में मंत्र अपनी खो चुके वैदिक ऋचाएँ!

दर्द दुनिया में हमारा कौन जानेगा बताओ ,

पाठकों को खोजती हैं अब किताबों में कथाएँ !

सात तारे आसमां के क्षुब्ध दिखता चंद्रमा भी ,

धुंध ने धरती ढकी है लुप्त सूरज ज्योत्सनाएँ !

मौन वृत धारण किया है मध्यमा औ वैखुरी ने ,

नाद पश्यंती ,परा का मौन "हलधर "सब दिशाएँ !

- जसवीर सिंह हलधर, देहरादून