तैरती लाशे = मीना तिवारी

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काश इन, 
बहती लाशों का,
कारोबार होता,
यूं न इनका बहिष्कार होता।

मिटती अगर न,
मानवीय संवेदनाएं,
यूं न इनका तिरस्कार होता,
सरकार की नाकामियां,
दिखला रही,
झूठी दिलासाए,
ये तैरती लाशों का भंडार न होता।

कितनो का घर उजड़ा,
इस जहां में यारो,
महफिले सजने का कारोबार न होता,
एक दिल भी होता,
गर पत्थर के सीने में,
बिखरती लाशों का अंजाम न होता।

कहां गए वो, 
दीपक जलाने वाले हाथ,
चिताओं का ऐसा नरसंहार न होता,
दोष है किसका,
नही समझ पा रहे लोग,
मिट जाने का ऐसा इतिहास न होता।

भोग रहा,
आज का मानव,
विकास के गिरते स्तर के बीच,
अमानवीयता का ऐसा भंडार न होता,
बयां कर रही है,
दस्ताने-जुर्म की कहानियां,
भ्रष्टाचारियों का समाज न होता।
= मीना तिवारी, पुणे