प्रथम प्रणय -- अनुराधा पाण्डेय 

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नित्य आते हुए और जाते हुए ,

बिन मुझे देख कर तुम गुजरते थे

नैन मेरे झुके तब तुम्हारे उठे ,

देककर मुस्कुराना बिसरते थे

राग रंजित तुम्हारे युगल थे नयन,

भान इसका मुझे तो सतत ही रहा

मौन थे तुम मगर मौन मैं भी रही ,

कुछ मैंने कही कुछ तुमने कहा

एक दिन भी अपवाद ऐसा हुआ ,

तुम मिले ही नहीं और मैं गई

सिद्ध था यह तुम्हारे नियत कर्म से ,

मौन तुम थे मगर मैं तुम्हें भा गई

जिस दिवस तुम देखे गये पंथ में,

उस दिवस सच कहूँ कुछ लगी रिक्तता

बिन मिले ही तुम्हें जिस दिवस गई,

उस दिवस की कहूँ क्या महे ! तिक्तता

गुप्त मेरे हृदय में हुआ अंकुरित ,

प्रेम का एक नन्हा विटप ज्यों लगा

बस अचानक जाने हुआ क्या मुझे ,

चित्त को नित्य लगने लगे तुम सगा

एक दिन पुस्तकों को सटा वक्ष से ,

शीश नत कर चली जा रही थी डगर

कान को एक आहट मिली पृष्ठ से ,

मैं मुड़ी तो तुम्हारा लगा कंठ स्वर

जिस डगर से सतत मैं गुजरती रही,

उस डगर ने निभाई प्रणय भूमिका।

मैं रुकी क्षण मगर लाज लोहित हुई,

धड़कनें बढ़ गई ,काँपता था बदन

सत्य है री ! मुझे तो लगी लाज थी ,

किन्तु तुम भी कम कुछ रहे नत मदन !

कंपकपाते हुए हाथ से फिर अरे !

राग से पूर्व मंडित दिया संचिका

मोद के रंग सारे मिलाकर मुझे।

भेंट की नेह सिंचित प्रणय पत्रिका।।

ऊर्ध्व आवागमन श्वास का तीव्र था

तोड़ संयम सहेजा विनय पत्रिका।।

वो लगा था मुझे वेद के मंत्र-सा

बन गई जीवनी वो अमर गीतिका।

फिर छुपा पृष्ठ में उस प्रणय प्रत्र को,

बाँचती मैं रही पूर्ण ही यामिनी

शब्द सीधे सरल नेह में थे पगे ,

प्राण से यों लगा बज उठी रागिनी

अक्षरों में पुहुप के विविध रँग थे।

सान्त्वना और मनुहार भी सङ्ग थे।।

दीप की जल उठी थी अमित पंक्तियाँ,

क्लेश जीवन जगत के सभी भंग थे

काट कर तुम हृदय को रुधिर घोल से,

वाक्य में धर दिए थे हृदय की व्यथा

अश्रु भी थे झरे और मुस्कान भी ,

दो नयन, दो अधर बाँचते थे कथा

क्या कहूँ उस समय क्या हृदय की दशा ,

यों लगा प्राप्त अणिमा सकल सृष्टि की

शब्द बौने लगे मैं कहूँ क्या भला ,

हाय ! सामर्थ्य ही हैं कहाँ दृष्टि की

प्रेम प्राणित हुआ,मैं प्रणत नत हुई।

श्वास से लिख गई प्रीत प्रस्तावना।।

स्यात दुविधा हृदय में अकथ थी भरी

भूल से भी हो,आज अवमानना।।

चित्र मेरे हृदय का छपा पत्र में,

बात मेरे हृदय की लिखी वस्तुतः।

प्रेम ने पग पसारे हुए थे सही ,

जाँचती निज हृदय सच लगी तत्वतः

प्रश्न आँखों मे शतशः तुम्हारे लिए,

मौन रहकर शमन सर्व तुमने किए

स्वर्ण से फिर प्रणय नीत पथ सज गया ,

राग के बुद्ध सरि में नहाने लगी

बन गये तुम मदन ! इक प्रणय पुंज ही,

प्रेयसी मैं तुम्हारी कहाने लगी

स्वर्ण नभ से लगा ज्योँ धरा पर बिछा

क्षण लगा वो सरस कोटि मधुमास से

प्रण हुआ दृढ़ तुम्हें फिर कहा देवता ,

लगी पूजने रोम से साँस से

टूट कर फिर अथक प्रेम तुमने किया ,

भेद तबसे मिटा साधना साध्य का

ईश सी बन बसी फिर तुम्हारे हृदय ,

पा गई वंद्य पद सद्य आराध्य का

याचना और प्रभु से करूँ क्या भला?

प्राण आयुष्य बन धमनियों में रहो।।

प्राण में हो समाहित प्रणय धार सी।

प्रियतरी बन सतत कोशिका में बहो।।

= अनुराधा पाण्डेय , द्वारिका , दिल्ली