पिता  = पूनम शर्मा स्नेहिल

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नन्ही सी जब उंगली थी मेरी ,

थाम उसे चलना सिखलाया।

अपनी नजरों से उस पल ,

जग से उसने मुझको मिलवाया

शब्द नहीं आते थे मुझको ,

तब हर बात समझ हो जाते थे

रोती थी जिस पल भी मैं ,

वो प्यार से मुझे फुसलाते थे

बहुत थी जिद्दी उस पल मैं,

वो फिर भी मुझे समझाते थे

सही गलत के बीच फर्क वो ,

करना मुझे सिखाते थे

क्या निर्णय लूँ किसी बात पर ,

वो कभी नहीं बताते थे

अंतर क्या है दोनों के बीच ,

वो अक्सर पूछने आते थे

मिल जाए जब मुझे किनारा ,

फिर हौले से मुस्काते थे

जहां भी घर के कोने में हूंँ ,

दबे पांँव वहाँ चले आते थे

बोल के कुछ भी टेढ़ी बातें ,

अक्सर मुझे सताते थे

रूठ जो जाऊँ उस पर मैं तो ,

फिर मुझे मनाने आते थे

सुबह मेरी होती ही तब थी ,

जब आकर पापा मुझे जगाते थे

सिर पर फेर के हाथ वो अक्सर ,

अपना प्यार जताते थे

धीरे-धीरे बीता बचपन ,

यौवन की दहलीज पर आई

पापा ने उस पल मेरी ,

कर डाली जाने क्यों विदाई

छूट गया फिर साथ पिता का ,

दूजे घर को मैं थी आई

उस पल देखा था पापा की ,

आंखें थी पूरी भर आई

लाड प्यार से पाला जिसने ,

छूट गया वो साथ था उस पल

फिर पापा से मिलने मैं अब,

 कभी- कभी जा पाती थी

घंटों बैठ के संग पिता के ,

दिल की बात बताती थी

जब तक साथ पिता का था ,

तब तक मस्ती से जी पाती थी

आई इक ऐसी भी सुबह ,

जिसने पिता को मेरे छीना था

जिसने जीवन दिया था अब तो ,

उसके बिन ही जीना था

खुशियां मानो खो सी गई थी ,

अब तो मेरे जीवन की

यादें बस थी साथ में मेरे ,

अब तो मेरे बचपन की

हर खुशी के लिए जीवन में ,

बस वो चेहरा ही तो काफी था

दुनिया की इस भीड़ में अब ,

नहीं वह चेहरा दिखता है

फिर भी हर पल मेरे भीतर ,

अहसास अभी भी जीता है

नजरें देख नहीं पाती पर,

पापा मेरे भीतर रहते हैं

मेरी हर बातों में वो ,

बन संस्कार झलकते हैं।

दूर कहीं भी चले गए पर,

संग हमेशा रहते हैं

मुझ पर मुझसे ज्यादा ,

विश्वास वो ही दिखलाते थे

तुम सबसे बेहतर हो ये,

बस पापा ही तो कहते थे ।।

= पूनम शर्मा " स्नेहिल " उत्तरप्रदेश गोरखपुर