किसान - प्रीति आनंद

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जीर्ण शरीर, थकी काया,

तन पर है मलिन वसन

ललाट पर चिंता की रेखा,

हर आस है जिसके दफन।

तपती धूप में खड़ा झुकाए तन,

टपके मोती सा बनकर पसीना।

सर पर भारी कर्जों का ले बोझ,

यूँही  गुजर जाए साल महीना।

धरती को पहना हरित चादर,

उघाड़ा टूटी खाट पर वो सोए।

खून-पसीने से सींचे ये धरती,

खुद भूख-प्यास से क्यों रोए?

फूटे कबेलू ,दरकती दिवारें

कहती बेबसी की कहानियाँ। 

बेगारी लाचारी करतीं विवश

पलायन को नगर जवानियाँ।

बेचैन शर्मा का भिक्खनज् हो,

या प्रेमचंद  का वो दलित होरी।

सदियों से अब तक ना बदली,

पूँजीपतियों के हाथों की ड़ोरी।

कुएं में कूदा फांसी पर भी झूला,

पर अस्तित्व अपना ना बचा पाया।

अपना सर्वस्व सभी को देकर भी,

रहा भिखारी, दानी ना कहलाया

भूखे फटेहाल मायूस से बच्चे,

बिन चारा-पानी मवेशी बदहाल।

लिखा कैसा भाग्य, हे विधाता!

जो अन्नदाता का होता ये हाल !

- प्रीति आनंद ,इंदौर, मध्य प्रदेश