धवल कुमुदिनी - किरण मिश्रा

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सुनो चाँद !

तुमसे मेरी पहचान

अधूरी तो नहीं,

फिर भी ये दूरी

इक लम्बी आह,

और तुम

समा जाते हो साँसों में।

नस-नस में।

रेंगने लगते हो।

तुम्हारा मधुर अहसास

कुलबुलाने लगता है,

प्रेम का स्नेहिल कीड़ा बन

जिस्म.से रूह तक में।

पलकें बन्द

बस तुम..हम हो जाते हैं ,

और

मन लगा आता है गोते

जलपरी बन

तुम्हारी यादों के अगाध सागर में.....।

और मैं खिल उठती हूँ

कुछ ही पलों में

अवगाहन  कर अपनी हरित

नाल-तन्तुओं को,

तुम्हारे गहरे

अगाध प्रेम में रोप !

अल सुबह

सरोवर के ठहरे जल में

उत्तान मुखी

मुस्कुराती शबनमी,शीतल,

"धवल कुमुदिनी" की सी...!

- किरण मिश्रा  'स्वयंसिद्धा' , नोएडा