देश प्रेम (मत्तगयंद सवैया- विधान211×7, 22 )- स्वर्णलता

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भारत भूमि लगे मनभावन,चातक भी रस घोल रहा है।

सागर तो चरनो महि शोभित,भाल हिमालय खोल रहा है।

वीर जवान खड़े पथ पे, रिपु का मन भी अब डोल रहा है।

देश हमें अब लागत मोहक,आज सभी यह बोल रहा है।

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आज सभी जग जान गया सखि,

भारत है दुनियाँ महि तारा।

कोइ नहीं इसकी उपमा अरु,

कोइ नहीं मुझको अति प्यारा।

भाल हिमालय सोह रहा सब,

देशन से यह लागत न्यारा।

कोइ कहे मुझको कुछ भी सखि,

अर्पण है यह जीवन  सारा।।

- स्वर्णलता सोन, दिल्ली