अंधेरा - प्रीति आनंद

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वहाँ एक कोने में दीवारों की छाँव थी तिकोने में,

जहाँ बैठा था कोई आँखे मलते हुए रोने-धोने में।

पूछा मैंने कौन है वो दुखी, डरा सा लगता था जो,

बोला, मैं हूँ अंधेरा जिसे आज गम ने है घेरा तो

यहाँ बैठा रो रहा हूँ अपने आप में कहीं खो रहा हूँ,

किसी ने कभी ध्यान दिया क्यों दुखी हो रहा हूँ l

आश्चर्य!ये क्या और कैसे कह दिया था मुझे उसने,

अंधेरा भी दुखी होगा ये क्या कभी सोचा किसी ने?

वो जो हर जगह है व्याप्त, होता नहीं कभी समाप्त ,

जन-मन में, धरती-गगन में जो फैला हुआ है पर्याप्त l

उसे कैसा, कहाँ का दुख जो हर किसी को दुखी करे,

अजर-अमर जो किसी पल जिए ,किसी पल में मरे।

उसने कहा हाँ मुझे दुख होता है मन मेरा भी रोता है,

सारी सृष्टि का कलंक मैं, मन की आस जो डुबोता हैl

मैं भय, पीड़ा, दुख, चिंता, निराशा, अवसाद का स्वरूप,

ईश्वर ने बनाया है मुझे प्रकाश के विपरीत एक विद्रूप।

सभी दूर मुझसे भागे, साथ होना मेरा अच्छा ना लागे,

मैं उपेक्षित, अनजान जोड़ ना सका कभी नेह के धागे।

उसकी सारी बातों में तर्क का नहीं कोई भी था अभाव,

सुन रही थी जिसे मैं ध्यान से ये उसका ही था प्रभाव l

उसकी बातों ने एक नया एहसास मुझमें  था जगाया,

मेरे मन को अंधेरे का महत्व भी अब समझ में आया।

अंधेरे को फिर मैनें ये बतलाया, देखो तुम ना करो गम,

तुम्हारा भी महत्व संसार में प्रकाश से कभी नहीं कम।

जीवन में सूरज की धूप के साथ ही छाँव भी है ज़रूरी,

ये सृष्टि दिन के बाद रात के बिना होती नहीं कभी पूरी।

मनोविकार सांसारिक  जो भी हैं अंधकार के प्रतिमान,

उन्हीं से कर संघर्ष ये मानव बनता है मन से शक्तिमान।

अंधकारविहीन जीवन में प्रकाश का कहाँ रहे फिर मान,

इतना सब सुनकर अंधरे को हुआ आत्म-वृत्ति का ज्ञान।

- प्रीति आनंद, इंदौर, मध्य प्रदेश