शहर और गाँव =  समरजीत 

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ये खेतों की हरियाली का मजा,

वो कंक्रीटों के बने शहरों में कहाँ।

कुछ इस तरह भागा इन्सान शहरों में

की गाँव की गलियां सुनी पड़ने लगी।

पड़ी जब महामारी की मार,

फिर गाँव की हर गलियां याद आने लगी।

वो ऑक्सीजन की मारा मारी,

वो ऑक्सीजन की खातिर जिंदगी गवाना।

वो गाँव की जिंदगी में आज भी,

शीतल हवाओं का पूरे तन मन को मतवाला कर देना।

गाँव की सूखी रोटी का मजा,

शहर के बरगर पिज़्ज़ा में कहाँ।

फ़टे मैले कपड़े में लोगों का जो प्यार है,

वो शूट बूट के शहरी लोगों में कहाँ।

वो गाँव की टूटी फूटी सड़क का मज़ा,

उस शहर के भीड़ पड़ी सड़को पर कहाँ।

वो बिन बिजली के भी शीतल पवन सी हवा का मजा,

उस शहर बीमार ए सी में कहाँ।

वो गाँव की चाँदनी रात ,जगमगाते तारे का खूबसूरत दृश्य,

शहर के चकाचौंध बनावटी उजालों में कहां।

वो चाँद का सुन्दर सा मुखड़ा देखने का नज़ारा,

शहरों के दिखावटी प्रकाश में कहाँ।

वो गाँव के झोपड़ी का मजा,

शहर के संगमरमर से घर मे कहाँ।

ये खेतों की हरियाली का नज़ारे का मजा,

शहरों के बड़े बड़े बाज़ारों में कहाँ।

वो सुबह शाम चहचहाती चिड़ियों के गानों का सुनने का आनंद,

शहर के पो पा करते गाड़ियों के करकस ध्वनियों में कहाँ।

वो गाँव के अनजाने से भी अपनेपन का एहसास,

शहर के अपनों में भी कहां।

वो आवश्य्कता पर ,गाँव के हर लोगों का खड़ा हो जाने का शक्ति,

उस शहर के दिखावटी रिश्तों में कहां।

वो पेड़ो की छांव का आंनद,

शहर के बिल्डिंगों में कहाँ।

वो सावन की रिमझिम बारिश वो खुले आसमान में भीगने का एहसास,

उस शहर की शावर और गीजर में कहाँ।

वो सुबह शाम की मदमस्त हवा का एहसास,

शहर के जहरीली हवा में कहाँ।

= समरजीत मल्ल, शोध छात्र

गोरखपुर विश्वविद्यालय